भारत वर्ष के महान संतो में संत कबीर दास का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है ! संत कबीर दास अपनी उलट वाणी जो योगी, साधको के लिए निराकार परब्रह्म जो हमारे आत्मस्वरूप अनंत ब्रमांड में ही समाहित है , जिसे भटका हुआ समाज बाह्यजगत में निरंतर पाने में अपनी अपनी बुद्धि अनुसार, ना ना प्रकार के कर्मकांडो, तथा तंत्र मन्त्रों के सहारे परमात्मा को पाने के लिए भटकता रहता है और कभी भी योगविधि द्वारा अपने ही अंतर्मन में प्रत्यक्ष रूप में कभी परमात्मा का चिंतन मनन नहीं करता ! भक्ति- मुक्ति की चाबी है, और ये ताला-चाबी हमारे ही पास है! हर प्राणी ये ताला-चाबी लेकर ही जन्म लेता है लेकिन अपने ही कर्मफल से इस चाबी को खो बैठता है! संत कबीर कहते है "बरसे कम्बल, भीगे पानी" तथ्य स्पष्ट करता है की गूढ़-अतिगूढ़ ज्ञान की प्राप्ति तथा परमात्मा दर्शन केवल ध्यानयोग से ही संभव है जब स्वात्मा में पांच तत्वों का ज्ञान हो जाये तब आकाश रुपी कम्बल पाप अपराधों को नष्ट कर योगी तथा निष्काम साधक को जो शुद्ध मनोवृति को धारण कर ज्ञान के अथाह सागर में गोते लगता है जैसे आकाश रुपी ईश्वर, परमात्मा या जिसको भी जो माने, जिसमे जिसकी आस्था हो , किसी भी धर्म ,देश या जाति का हो ध्यान तथा योग के माध्यम से अपने जन्म मरण का निवारण कर सकने में संभव है.!